Friday, March 30, 2018

दुष्यंत कुमार: इनसे मिलिए

पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून

कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव

टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस

कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़

गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण

छाती के नाम महज़ हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन-चुन कर बाल खड़े इक्कीस

पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते-करते जीवन का सूद

बाँहें ढीली-ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल

छोटी-सी गरदन रंग बेहद बदरंग
हरवक़्त पसीने का बदबू का संग

पिचकी अमियों से गाल लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान

माथे पर चिन्ताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह

तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल

बैठे तो फिर घण्टों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत

कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार ।

दुष्यंत कुमार: उसे क्या कहूँ

किन्तु जो तिमिर-पान
औ' ज्योति-दान
करता करता बह गया
उसे क्या कहूँ
कि वह सस्पन्द नहीं था ?

और जो मन की मूक कराह
ज़ख़्म की आह
कठिन निर्वाह
व्यक्त करता करता रह गया
उसे क्या कहूँ
गीत का छन्द नहीं था ?


पगों कि संज्ञा में है
गति का दृढ़ आभास,
किन्तु जो कभी नहीं चल सका
दीप सा कभी नहीं जल सका
कि यूँही खड़ा खड़ा ढह गया
उसे क्या कहूँ
जेल में बन्द नहीं था ?

दुष्यंत कुमार: थोड़ा सा हाशिया

तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया
पांवों की सब जमीन को फूलों से ढंक लिया

किससे कहें कि छत की मुंडेरों से गिर पड़े
हमने ही ख़ुद पतंग उड़ाई थी शौकिया

अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था
वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया

मुँह को हथेलियों में छिपाने की बात है
हमने किसी अंगार को होंठों से से छू लिया

घर से चले तो राह में आकर ठिठक गये
पूरी हूई रदीफ़ अधूरा है काफ़िया

मैं भी तो अपनी बात लिखूं अपने हाथ से
मेरे सफ़े पे छोड़ दो थोड़ा सा हाशिया

इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उंडेल
अब लोग टोकते है ग़ज़ल है कि मरसिया

दुष्यंत कुमार: मापदण्ड

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

दुष्यंत कुमार: ये तो हद है

लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है
लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है

आप दीवार उठाने के लिए आए थे
आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है

ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है
ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है

आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है
आदमी छाल चबाने लगे, ये तो हद है

जिस्म पहरावों में छुप जाते थे, पहरावों में—
जिस्म नंगे नज़र आने लगे, ये तो हद है

लोग तहज़ीब—ओ—तमद्दुन के सलीक़े सीखे
लोग रोते हुए गाने लगे, ये तो हद है

दुष्यंत कुमार: अब किसी को भी नज़र

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार

आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं
रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार

रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें
इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले—बहार

मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके—जुर्म हैं
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार

हालते—इन्सान पर बरहम न हों अहले—वतन
वो कहीं से ज़िन्दगी भी माँग लायेंगे उधार

रौनक़े-जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं
मैं जहन्नुम में बहुत ख़ुश था मेरे परवरदिगार

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार

दुष्यंत कुमार: तू किसी रेल-सी

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ

तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ

मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ

कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

दुष्यंत कुमार: ये धुएँ का एक घेरा

ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ
मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ

ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे
तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ

मैं ठिठक गया था लेकिन तेरे साथ—साथ था मैं
तू अगर नदी हुई तो मैं तेरी सतह रहा हूँ

तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं
तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ

कभी दिल में आरज़ू—सा, कभी मुँह में बद्दुआ—सा
मुझे जिस तरह भी चाहा, मैं उसी तरह रहा हूँ

मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो
मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ

यहाँ कौन देखता है, यहाँ कौन सोचता है
कि ये बात क्या हुई है,जो मैं शे’र कह रहा हूँ

दुष्यंत कुमार: वो निगाहें सलीब है

वो निगाहें सलीब है
हम बहुत बदनसीब हैं

आइये आँख मूँद लें
ये नज़ारे अजीब हैं

ज़िन्दगी एक खेत है
और साँसे जरीब हैं

सिलसिले ख़त्म हो गए
यार अब भी रक़ीब है

हम कहीं के नहीं रहे
घाट औ’ घर क़रीब हैं

आपने लौ छुई नहीं
आप कैसे अदीब हैं

उफ़ नहीं की उजड़ गए
लोग सचमुच ग़रीब हैं.

दुष्यंत कुमार: एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

दर्दे—दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुँचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

दुष्यंत कुमार: तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं

तेरी ज़ुबान है झूठी ज्म्हूरियत की तरह
तू एक ज़लील-सी गाली से बेहतरीन नहीं

तुम्हीं से प्यार जतायें तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं

तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर
तु इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं

बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ
ये मुल्क देखने लायक़ तो है हसीन नहीं

ज़रा-सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो
तुम्हारे हाथ में कालर हो, आस्तीन नहीं

दुष्यंत कुमार: ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है

ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं है

राम जाने किस जगह होंगे क़बूतर
इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है

आपसे मिल कर हमें अक्सर लगा है
हुस्न में अब जज़्बा—ए—अमज़द नहीं है

पेड़—पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे
रास्तों में एक भी बरगद नहीं है

मैकदे का रास्ता अब भी खुला है
सिर्फ़ आमद—रफ़्त ही ज़ायद नहीं

इस चमन को देख कर किसने कहा था
एक पंछी भी यहाँ शायद नहीं है.

दुष्यंत कुमार: अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला

अफ़वाह है या सच है ये कोई नही बोला
मैंने भी सुना है अब जाएगा तेरा डोला

इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से
पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला

लगता है ख़ुदाई में कुछ तेरा दख़ल भी है
इस बार फ़िज़ाओं ने वो रंग नहीं घोला


आख़िर तो अँधेरे की जागीर नहीं हूँ मैं
इस राख में पिन्हा है अब भी वही शोला


सोचा कि तू सोचेगी ,तूने किसी शायर की
दस्तक तो सुनी थी पर दरवाज़ा नहीं खोला.

दुष्यंत कुमार: मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे
इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे

हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे

थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे

उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती
वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे

रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी
आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे

हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये
इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे

हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते हैं
अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे

दुष्यंत कुमार: हो गई है पीर पर्वत

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

दुष्यंत कुमार: गडरिए कितने सुखी हैं

गडरिए कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।

जबकि
सारे दल
पानी की तरह धन बहाते हैं,
गडरिए मेंड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं
... भेडों को बाड़े में करने के लिए
न सभाएँ आयोजित करते हैं
            न रैलियाँ,
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,
स्वेच्छा से
जिधर चाहते हैं, उधर
भेड़ों को हाँके लिए जाते हैं ।

गडरिए कितने सुखी हैं ।

दुष्यंत कुमार: मेरी कुंठा

मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों सी
ताने-बाने बुनती
तड़प-तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती!

बाहर आने दूँ
तो लोक-लाज-मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
सिमटने पर आमादा ।

दुष्यंत कुमार: धर्म

तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,

छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,

मुझको सन्तोष हुआ
और लगा –-
हर छोटे को
बड़ा करना धर्म है ।

दुष्यंत कुमार: एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है

एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए
यह हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

मस्लहत—आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम
तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है

इस क़दर पाबन्दी—ए—मज़हब कि सदक़े आपके
जब से आज़ादी मिली है मुल्क़ में रमज़ान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है

मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है

अदम गोंडवी: आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे

तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे

एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे

अदम गोंडवी: ज़ुल्फ़-अँगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब

ज़ुल्फ़-अँगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब

पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुरसत है पढ़े दिल की क़िताब

इस सदी की तिश्नगी का ज़ख़्म होंठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब

चार दिन फुटपाथ के साए में रहकर देखिए
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब

अदम गोंडवी: मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको


आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजू पार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा, 'काका, तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िंदा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें'

बोला कृष्ना से - 'बहन, सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से'

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए सरपंच के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लंबी नोक पर
देखिए सुखराज सिंह बोले हैं खैनी ठोंक कर

'क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस में मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
न पुट्ठे पे हाथ रखने देती है, मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी'

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुरज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी सँभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेर कर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
'जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने'

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोल कर
इक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर, 'माल वो चोरी का तूने क्या किया?'

'कैसी चोरी माल कैसा?' उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा

होश खो कर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आँधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देख कर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे

'कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं'

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल-से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, 'इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा'

इक सिपाही ने कहा, 'साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें'

बोला थानेदार, 'मुर्गे की तरह मत बाँग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टाँग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है'

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
'कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल'

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म, संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लँगोटी के लिए
बेचती हैं जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए

अदम गोंडवी: काजू भुने पलेट में विस्की गिलास में

काजू भुने पलेट में विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनाएँ तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गई है यहाँ की नखास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

अदम गोंडवी: आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है जिंदगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है जिंदगी

भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लमहात से भी तल्ख़तर है जिंदगी

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साए में फिर भी बेख़बर है ज़िंदगी

रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िंदगी

दफ़्न होता है जहाँ आ कर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गंदा असर है ज़िंदगी

अदम गोंडवी: जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में

जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

जिसकी क़ीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालिए मत जिस्म की टकसाल में

अदम गोंडवी: घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है

भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है

बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है

सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है

अदम गोंडवी: तुम्‍हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

तुम्‍हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है

उधर जमहूरियत का ढोल पीटे जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है

लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ' गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

तुम्‍हारी मेज चाँदी की तुम्‍हारे ज़ाम सोने के
यहाँ जुम्‍मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

अदम गोंडवी: जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिए

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिए
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिए

जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए

जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिए

मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिए

अदम गोंडवी: हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए

हिंदू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए

ग़लतियाँ बाबर की थी; जुम्‍मन का घर फिर क्‍यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए

छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ़
दोस्त मेरे मजहबी नग़मात को मत छेड़िए

अदम गोंडवी: वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बँगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्‍नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्‍क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

अदम गोंडवी: वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं

वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास ले कर क्‍या करें

लोकरंजन हो जहाँ शंबूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास ले कर क्‍या करें

कितना प्रगतिमान रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास ले कर क्‍या करें

बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूँठ में भी सेक्‍स का एहसास ले कर क्‍या करें

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास ले कर क्‍या करें

अदम गोंडवी: विकट बाढ़ की करुण कहानी

विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्‍यास लिखा है
बूढ़े बरगद के वल्‍कल पर सदियों का इतिहास लिखा है

क्रूर नियति ने इसकी किस्‍मत से कैसा खिलवाड़ किया है
मन के पृष्‍ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है

छाया मदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्‍वप्निल स्‍मृतियों में सीता का वनवास लिखा है

नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्‍वास लिखा है

लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तनहाई के मरुथल में मधुमास लिखा है

अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्‍य पर विरहदग्‍ध उच्छ्‌वास लिखा है

अदम गोंडवी: मुक्तिकामी चेतना अभ्‍यर्थना इतिहास की

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते है जिसे इस देश का स्‍वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की

यक्ष प्रश्‍नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्‍या हमारी प्यास की ?

इस व्‍यवस्‍था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्‍या दिया
सेक्‍स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्‍फ़ास की

याद रखिए यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की

अदम गोंडवी: भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्‍त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचरन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो