Sunday, April 1, 2018

धर्मवीर भारती: क्या इनका कोई अर्थ नहीं

ये शामें, सब की शामें...
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?

वे लमहें
वे सूनेपन के लमहें
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएं फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लमहें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?

वे घड़ियां, वे बेहद भारी-भारी घड़ियां
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियां
वे घड़ियां
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?

धर्मवीर भारती: उत्तर नहीं हूँ

उत्तर नहीं हूँ
मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

तुमने गढ़ा है मुझे
किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया
या
फूल की तरह
मुझको बहा नहीं दिया

प्रश्न की तरह मुझको रह-रह दोहराया है
नयी-नयी स्थितियों में मुझको तराशा है
सहज बनाया है
गहरा बनाया है

प्रश्न की तरह मुझको
अर्पित कर डाला है
सबके प्रति
दान हूँ तुम्हारा मैं
जिसको तुमने अपनी अंजलि में बाँधा नहीं
दे डाला!

उत्तर नहीं हूँ मैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

धर्मवीर भारती: उपलब्धि

मैं क्या जिया ?

मुझको जीवन ने जिया -
बूँद-बूँद कर पिया, मुझको
पीकर पथ पर ख़ाली प्याले-सा छोड़ दिया

मैं क्या जला?
मुझको अग्नि ने छला -
मैं कब पूरा गला, मुझको
थोड़ी-सी आँच दिखा दुर्बल मोमबत्ती-सा मोड़ दिया

देखो मुझे
हाय मैं हूँ वह सूर्य
जिसे भरी दोपहर में
अँधियारे ने तोड़ दिया !

धर्मवीर भारती: एक वाक्य

चेक बुक हो पीली या लाल,
दाम सिक्के हों या शोहरत -

कह दो उनसे
जो ख़रीदने आये हों तुम्हें
हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं होगा है !

धर्मवीर भारती: टूटा पहिया

मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत !

क्या जाने कब
इस दुरूह चक्रव्यूह में
अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ
कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय !

अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी
बड़े-बड़े महारथी
अकेली निहत्थी आवाज़ को
अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें

तब मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया
उसके हाथों में
ब्रह्मास्त्रों से लोहा ले सकता हूँ !
मैं रथ का टूटा पहिया हूँ

लेकिन मुझे फेंको मत
इतिहासों की सामूहिक गति
सहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या जाने

सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले !

जौन एलिया: यानी तिरे फ़िराक़ में ख़ूब शराब पी गई

हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई
शौक़ में कुछ नहीं गया शौक़ की ज़िंदगी गई

तेरा फ़िराक़ जान-ए-जाँ ऐश था क्या मिरे लिए
यानी तिरे फ़िराक़ में ख़ूब शराब पी गई

तेरे विसाल के लिए अपने कमाल के लिए
हालत-ए-दिल कि थी ख़राब और ख़राब की गई

उस की उमीद-ए-नाज़ का हम से ये मान था कि आप
उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गई

एक ही हादसा तो है और वो ये कि आज तक
बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई

ब'अद में तेरे जान-ए-जाँ दिल में रहा अजब समाँ
याद रही तिरी यहाँ फिर तिरी याद भी गई

उस के बदन को दी नुमूद हम ने सुख़न में और फिर
उस के बदन के वास्ते एक क़बा भी सी गई

मीना-ब-मीना मय-ब-मय जाम-ब-जाम जम-ब-जम
नाफ़-पियाले की तिरे याद अजब सही गई

कहनी है मुझ को एक बात आप से यानी आप से
आप के शहर-ए-वस्ल में लज़्ज़त-ए-हिज्र भी गई

सेहन-ए-ख़याल-ए-यार में की न बसर शब-ए-फ़िराक़
जब से वो चाँदना गया जब से वो चाँदनी गई

जौन एलिया: अभी इक शोर सा उठा है कहीं

अभी इक शोर सा उठा है कहीं
कोई ख़ामोश हो गया है कहीं

है कुछ ऐसा कि जैसे ये सब कुछ
इस से पहले भी हो चुका है कहीं

तुझ को क्या हो गया कि चीज़ों को
कहीं रखता है ढूँढता है कहीं

जो यहाँ से कहीं न जाता था
वो यहाँ से चला गया है कहीं

आज शमशान की सी बू है यहाँ
क्या कोई जिस्म जल रहा है कहीं

हम किसी के नहीं जहाँ के सिवा
ऐसी वो ख़ास बात क्या है कहीं

तू मुझे ढूँड मैं तुझे ढूँडूँ
कोई हम में से रह गया है कहीं

कितनी वहशत है दरमियान-ए-हुजूम
जिस को देखो गया हुआ है कहीं

मैं तो अब शहर में कहीं भी नहीं
क्या मिरा नाम भी लिखा है कहीं

इसी कमरे से कोई हो के विदाअ'
इसी कमरे में छुप गया है कहीं

मिल के हर शख़्स से हुआ महसूस
मुझ से ये शख़्स मिल चुका है कहीं

जौन एलिया: आदमी वक़्त पर गया होगा

आदमी वक़्त पर गया होगा
वक़्त पहले गुज़र गया होगा

वो हमारी तरफ़ न देख के भी
कोई एहसान धर गया होगा

ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ
आज हर शख़्स मर गया होगा

शाम तेरे दयार में आख़िर
कोई तो अपने घर गया होगा

मरहम-ए-हिज्र था अजब इक्सीर
अब तो हर ज़ख़्म भर गया होगा

दयार = इलाक़ा
इक्सीर = रसायन जिससे पीतल, सोना बन जाता है, तेज़ असर दवा

दुष्यंत कुमार: अपाहिज व्यथा

अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।

ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।

अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।

वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।

तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।

मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।

समालोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।

दुष्यंत कुमार: जुंबिश तो देखिये

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये
इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये

गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये

बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन
सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये

उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिये

जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ
इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिये