Tuesday, August 2, 2016

जॉन एलिया: अपना ख़ाका लगता हूँ

अपना ख़ाका लगता हूँ
एक तमाशा लगता हूँ

आईनों को ज़ंग लगा
अब मैं कैसा लगता हूँ

अब मैं कोई शख़्स नहीं
उस का साया लगता हूँ

सारे रिश्ते तिश्ना हैं
क्या मैं दरिया लगता हूँ

उस से गले मिल कर ख़ुद को
तनहा तनहा लगता हूँ

ख़ुद को मैं सब आँखों में
धुँदला धुँदला लगता हूँ

मैं हर लम्हा इस घर से
जाने वाला लगता हूँ

क्या हुए वो सब लोग के मैं
सूना सूना लगता हूँ

मसलहत इस में क्या है मेरी
टूटा फूटा लगता हूँ

क्या तुम को इस हाल में भी
मैं दुनिया का लगता हूँ

कब का रोगी हूँ वैसे
शहर-ए-मसीहा लगता हूँ

मेरा तालू तर कर दो
सच-मुच प्यासा लगता हूँ

मुझ से कमा लो कुछ पैसे
ज़िंदा मुर्दा लगता हूँ

मैं ने सहे हैं मक्र अपने
अब बे-चारा लगता हूँ.

जॉन एलिया: कितने ऐश उड़ाते होंगे

कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे

उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा,
यूँ ही मेरे बाल हैं बिखरे, और बिखर जाते होंगे

बंद रहे जिन का दरवाज़ा ऐसे घरों की मत पूछो,
दीवारें गिर जाती होंगी, आँगन रह जाते होंगे

मेरी साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएंगे,
यानी मेरे बाद भी यानी साँस लिये जाते होंगे

यारो कुछ तो बात बताओ उस की क़यामत बाहों की,
वो जो सिमटते होंगे इन में, वो तो मर जाते होंगे

जॉन एलिया: एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं

एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं

कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं

क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं

अब है बस अपना सामना दरपेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं

वो ही नाज़-ओ-अदा, वो ही ग़मज़े
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं

अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं

कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं

तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं

कू–ए–जानां में सोग बरपा है
के अचानक, सुधर गया हूँ मैं

जॉन एलिया: कौन इस घर की देख भाल करे

एक ही मुश्दा सुभो लाती है
ज़हन में धूप फैल जाती है

सोचता हूँ के तेरी याद आखिर
अब किसे रात भर जगाती है

फर्श पर कागज़ो से फिरते है
मेज़ पर गर्द जमती जाती है

मैं भी इज़न-ए-नवागरी चाहूँ
बेदिली भी तो नब्ज़ हिलाती है

आप अपने से हम सुखन रहना
हमनशी सांस फूल जाती है

आज एक बात तो बताओ मुझे
ज़िन्दगी ख्वाब क्यो दिखाती है

क्या सितम है कि अब तेरी सूरत
गौर करने पर याद आती है

कौन इस घर की देख भाल करे
रोज़ एक चीज़ टूट जाती है

जॉन एलिया: एक ही शख्स था

उम्र गुज़रेगी इम्तहान में क्या?
दाग ही देंगे मुझको दान में क्या?

मेरी हर बात बेअसर ही रही
नुक्स है कुछ मेरे बयान में क्या?

बोलते क्यो नहीं मेरे अपने
आबले पड़ गये ज़बान में क्या?

मुझको तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है खानदान मे क्या?

अपनी महरूमिया छुपाते है
हम गरीबो की आन-बान में क्या?

वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मै तेरी अमान में क्या?

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?

है नसीम-ए-बहार गर्दालूद
खाक उड़ती है उस मकान में क्या

ये मुझे चैन क्यो नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहान में क्या?

जॉन एलिया: महक उठा है

महक उठा है आँगन इस ख़बर से
वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से

जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम
दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे

मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था
उतारे कौन अब दीवार पर से

गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की
मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से

उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद
हमारी चाँदनी छाए तो तरसे

मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान
कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से

जॉन एलिया: ज़िन्दगी किस तरह बसर होगी

सर येह फोड़िए अब नदामत में
नीन्द आने लगी है फुरकत में

हैं दलीलें तेरे खिलाफ मगर
सोचता हूँ तेरी हिमायत में

इश्क को दरम्यान ना लाओ के मैं
चीखता हूँ बदन की उसरत में

ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी है मुर्रबत में

वो जो तामीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में

वो खला है कि सोचता हूँ मैं
उससे क्या गुफ्तगू हो खलबत में

ज़िन्दगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मुहब्बत में

मेरे कमरे का क्या बया कि यहाँ
खून थूका गया शरारत में

रूह ने इश्क का फरेब दिया
ज़िस्म को ज़िस्म की अदावत में

अब फकत आदतो की वर्जिश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में

ऐ खुदा जो कही नहीं मौज़ूद
क्या लिखा है हमारी किस्मत में

जॉन एलिया: अजब था उसकी

अजब था उसकी दिलज़ारी का अन्दाज़
वो बरसों बाद जब मुझ से मिला है
भला मैं पूछता उससे तो कैसे
मताए-जां तुम्हारा नाम क्या है?

साल-हा-साल और एक लम्हा
कोई भी तो न इनमें बल आया
खुद ही एक दर पे मैंने दस्तक दी
खुद ही लड़का सा मैं निकल आया

दौर-ए-वाबस्तगी गुज़ार के मैं
अहद-ए-वाबस्तगी को भूल गया
यानी तुम वो हो, वाकई, हद है
मैं तो सचमुच सभी को भूल गया

रिश्ता-ए-दिल तेरे ज़माने में
रस्म ही क्या निबाहनी होती
मुस्कुराए हम उससे मिलते वक्त
रो न पड़ते अगर खुशी होती

दिल में जिनका निशान भी न रहा
क्यूं न चेहरों पे अब वो रंग खिलें
अब तो खाली है रूह, जज़्बों से
अब भी क्या हम तपाक से न मिलें

शर्म, दहशत, झिझक, परेशानी
नाज़ से काम क्यों नहीं लेतीं
आप, वो, जी, मगर ये सब क्या है
तुम मेरा नाम क्यों नहीं लेतीं

गुलज़ार: दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई

दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई

आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई

पक गया है शज़र पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई

फिर नज़र में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुग़ालता है कोई

देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई

Monday, August 1, 2016

गुलज़ार: बुझता नहीं धुआँ

आँखों में जल रहा है, क्यूँ बुझता नहीं धुआँ
उठता तो है घटा-सा बरसता नहीं धुआँ

चूल्हे नहीं जलाये या बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गये हैं अब उठता नहीं धुआँ

आँखों के पोंछने से लगा आँच का पता
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ

आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुआँ

गुलज़ार: ज़िन्दगी यूँ हुई बसर तन्हा

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफिला साथ और सफ़र तन्हा

अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा

रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तन्हा

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा

हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तन्हा

गुलज़ार: त्रिवेणी

कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा
कोई साथ आया था, उन्हें ले गया, फिर नहीं लौटे

शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!
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कभी कभी बाजार में यूँ भी हो जाता है
क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम नहीं थे

ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।
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सामने आये मेरे, देखा मुझे, बात भी की
मुस्कराए भी,  पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर

कल का अख़बार था, बस देख लिया, रख भी दिया।
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वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।
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सारा दिन बैठा, मैं हाथ में लेकर खाली कासा
रात जो गुज़री, चांद की कौड़ी डाल गई उसमें

सूदखोर सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।
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मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे
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ज़मीं भी उसकी, ज़मी की नेमतें उसकी
ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बंदे भी

खुदा से कहिये, कभी वो भी अपने घर आयें!
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वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा
दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने

कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!
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कुछ इस तरह ख्‍याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में

अब फूंक भी दो, वरना ये उंगली जलाएगा!
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लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर

यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?
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चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में चुभते ही खूँ बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था, लड़का अपने आँगन में

बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!
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नाप के वक्‍त भरा जाता है , रेत घड़ी में
इक तरफ़ खाली हो जब, फिर से उलट देते हैं उसको

उम्र जब ख़त्म हो, क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?
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कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से

टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!
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कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है

क्यों इस फौजी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।
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आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।

दो अनपढ़ों कि कितनी मोहब्बत है अदब से
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तुम्हारे होंठ बहुत खुश्क खुश्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शेर मिलते थे

ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?


गुलज़ार: ख़ुदा

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर
बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा था,
मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे।
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया।

तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर,
मुझ पर ठेल दिया।
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी।
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा,
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया।

मेरी ख़ुदी को तुमने
चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने
तेरा चाँद का मोहरा मार लिया

मौत की शह दे कर तुमने समझा
अब तो बाज़ी मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया,
और अपनी रूह बचा ली,
पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी।

गुलज़ार: रात चुपचाप

रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है
रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है
ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है
चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है
और सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है
काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी
हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है

गुलज़ार: पूरा एक दिन

मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता है
मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है,
झपट लेता है, अंटी से
कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की
आहट भी नहीं होती,
खरे दिन को भी खोटा समझ के भूल जाता हूँ मैं
गिरेबान से पकड़ कर मांगने वाले भी मिलते हैं
"तेरी गुजरी हुई पुश्तों का कर्जा है, तुझे किश्तें चुकानी है "
ज़बरदस्ती कोई गिरवी रख लेता है, ये कह कर
अभी 2-4 लम्हे खर्च करने के लिए रख ले,
बकाया उम्र के खाते में लिख देते हैं,
जब होगा, हिसाब होगा
बड़ी हसरत है पूरा एक दिन इक बार मैं
अपने लिए रख लूं,
तुम्हारे साथ पूरा एक दिन
बस खर्च
करने की तमन्ना है !!

गुलज़ार: आम

मोड़ पे देखा है वो बूढ़ा-सा इक आम का पेड़ कभी?
मेरा वाकिफ़ है बहुत सालों से, मैं जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो इक आम चुराने के लिए
परली दीवार से कंधों पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख से मेरा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर
मेरी वेदी का हवन गरम किया था उसने
और जब हामला थी बीबा, तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ़ कैरियाँ फेंकी थी उसी ने

वक़्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए

तब भी लजाता था जब मुन्ने से कहती बीबा
'हाँ उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है।'
अब भी लजाता हूँ, जब मोड़ से गुज़रता हूँ
खाँस कर कहता है,"क्यूँ, सर के सभी बाल गए?"

सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको!

गुलज़ार: ईंधन

छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर 
कान बनाकर
नाक सजाकर
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला
तेरा उपला
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था
इक मुन्ना था
इक दशरथ था 

...बरसों बाद मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात 
इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया !

गुलज़ार: यार जुलाहे

मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे
अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
फिर से बांध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमे
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गांठ गिरह बुन्तर की
देख नहीं सकता कोई
 
मैनें तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिराहें
साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे
मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे

ग़ालिब: न था कुछ तो ख़ुदा था

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता।
हुआ जब गम से यूँ बेहिश, तो गम क्या सर के कटने का,
ना होता गर जुदा तन से, तो जानु पर धरा होता।
हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया, पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता।
जानु  = घुटना