Monday, August 1, 2016

गुलज़ार: त्रिवेणी

कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा
कोई साथ आया था, उन्हें ले गया, फिर नहीं लौटे

शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!
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कभी कभी बाजार में यूँ भी हो जाता है
क़ीमत ठीक थी, जेब में इतने दाम नहीं थे

ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।
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सामने आये मेरे, देखा मुझे, बात भी की
मुस्कराए भी,  पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर

कल का अख़बार था, बस देख लिया, रख भी दिया।
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वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।
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सारा दिन बैठा, मैं हाथ में लेकर खाली कासा
रात जो गुज़री, चांद की कौड़ी डाल गई उसमें

सूदखोर सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।
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मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे
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ज़मीं भी उसकी, ज़मी की नेमतें उसकी
ये सब उसी का है, घर भी, ये घर के बंदे भी

खुदा से कहिये, कभी वो भी अपने घर आयें!
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वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा
दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने

कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!
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कुछ इस तरह ख्‍याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में

अब फूंक भी दो, वरना ये उंगली जलाएगा!
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लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर

यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?
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चूड़ी के टुकड़े थे, पैर में चुभते ही खूँ बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था, लड़का अपने आँगन में

बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!
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नाप के वक्‍त भरा जाता है , रेत घड़ी में
इक तरफ़ खाली हो जब, फिर से उलट देते हैं उसको

उम्र जब ख़त्म हो, क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?
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कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से

टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!
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कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है

क्यों इस फौजी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।
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आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।

दो अनपढ़ों कि कितनी मोहब्बत है अदब से
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तुम्हारे होंठ बहुत खुश्क खुश्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शेर मिलते थे

ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?


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