Saturday, May 4, 2019

धूमिल: उस औरत की बगल में लेटकर

मैंने पहली बार महसूस किया है
कि नंगापन
अन्धा होने के खिलाफ़
एक सख्त कार्यवाही है

उस औरत की बगल में लेटकर
मुझे लगा कि नफ़रत
और मोमबत्तियाँ जहाँ बेकार
साबित हो चुकी हैं और पिघले हुए
शब्दों की परछाईं
किसी खौफ़नाक जानवर के चेहरे में
बदल गयी है, मेरी कविताएँ
अँधेरा और कीचड़ और गोश्त की
खुराक़ पर ज़िन्दा है

वक़्त को रगड़कर
मिटा देने के लिए
सिर्फ़ उछलते शरीर ही काफ़ी नहीं हैं
जबकि हमारा चेहरा
रसोईघर की फूटी पतीलियों के ठीक
सामने है और रात
उस वक़्त रास्ता नहीं होती
जब हमारे भीतर तरबूज़ कट रहे हैं
मगर हमारे सिर तकियों पर
पत्थर हो गये हैं
उस औरत की बगल में लेटकर
मैंने महसूस किया कि घर
छोटी-छोटी सुविधाओं की लानत से
बना है
जिसके अन्दर जूता पहनकर टहलना मना है
यह घास है याने कि हरा डर
जिसने मुझे इस तरह
सोचने पर मज़बूर कर दिया है
इस वक़्त यह सोचना कितना सुखद है
कि मेरे पड़ौसियों के सारे दाँत
टूट गये हैं
उनकी जाँघों की हरकत
पाला लगी मटर की तरह
मुर्झा गयी है उनकी आँखों की सेहत
दीवार खा गयी है

उस औरत की बगल में लेटकर
(जब अचानक
बुझे हुए मकानों के सामने
दमकलों के घण्टे चुप हो गये हैं)
मुझे लगा है कि हाँफते हुए
दलदल की बगल में जंगल होना
आदमी की आदत नहीं अदना लाचारी है
और मेरे भीतर एक कायर दिमाग़ है
जो मेरी रक्षा करता है और वही
मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है।

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